मैं खड़ा हूँ सागर किनारे
मुझे नहीं मालूम
ये सागर रेत का है
या पानी का..
सागर से लहरें उठ
तट से टकरा कर
लौट जाती है
मेरी द्रष्टि पिघल जाती है..
दूर तक बस वही
फैला है एक सा
कहीं कहीं कुछ
हलचल सी दिखती है..
मैं ललचाया मीन सा
ललचाई नजरों से
खड़ा तट पर
प्यास बुझाने को
बढाता हूँ अंजुली.
हट जाते हैं पीछे कदम
तभी एक बड़ी सी लहर
मेरे चरणों से लिपट
धकेल देती है, मुझे सागर में..
हाथ-पांव बहुत मारे
निकल न पाया सागर से..
फिर भी ना प्यास बुझी मेरी
मुझे नहीं मालूम
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